ह्रिषिकेश मुकर्जी : मानवीय ऊष्मा के सफ़ल चितेरे
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मुकर्जी साहब चले गये, अच्छा ही हुआ, अब भूले-भटके कभी उनकी फिल्में याद नहीं दिलायेंगी कि फिल्में ऎसी भी होती हैं ! आज हम जिस तथाकथित यथार्थ के दौर की बातें करते हैं, उसमें सब कुछ इतना काला क्यों है? क्या यथार्थ केवल और केवल नकारात्मकता लिये हुए ही होता है!
मुकर्जी साहब के ज़माने में दुनिया भूमंड्लीकृत नहीं थी, हम अपनी छोटी किन्तु गैर मामूली दुनिया में अपने दुखों और सुखो के साथ मगन थे । मुकर्जी साहब की फिल्मों के नायक अक्सर गैर राजनीतिक होते थे, जैसा कि आम आदमी होता है । डरा हुआ, अपने छोटे से संसार को सहेजने और सजाने का प्रयत्न करता हुआ, व्यवस्था की मार, उसकी निर्लज्जता से अपने कदमों को जैसे साधता सा!
मैं फिल्मों का शौकीन नहीं हूं । किन्तु जब भी उनकी कोई फिल्म देखता तो फील गुड होता, ये फील गुड प्रमोद महाजन वाला नहीं था, जिसमें एक माल उडाये और दस उसको टापते रहें!, बल्कि वो उन टापने वाले दस के 'आनन्द' की कथा होती ।
उनकी 'गुडडी' जैसे अपने समय की निम्न मध्यवर्गीय लडकियों की प्रतिनिधि बन गयी! हर लडकी ने 'गुडडी' में अपने आप को ढूंढा! तब लडकियाँ जलवे नहीं बिखेरा करतीं थी(मीडिया की भाषा में) वरन, वे जैसे हमारे गली मोहल्लों, कस्बों को जोडने वाली सेतु हुआ करतीं थीं! मेरे घर के पीछे रहती थी 'सोनू'। पूरे दिन मोहल्ले के सब लोगों को चिल्लाती रहती, किसके यहां आज क्या बन रहा है, कौन क्या कर रहा है, ये जानना नहीं पडता , दिन भर आप के कानों में उसकी आवाज़ ये बताती रह्ती । उसकी शादी हुई, वो चली गयी, बाद में जब उस से मुलाकात हुई तो मैने कहा, तुम हमारे मोहल्ले की 'गुड्डी' थी! वो बहुत खुश हुई!!
उनका 'बावर्ची' भोजन से ज़्यादा मानवीय तरलता पकाता, एक ही छत के नीचे रहते हुए जो छोटी-छोटी ग्रंथियां बन जाती वह उन्हें ढीला करता! 'सत्यकाम' पागलपन की हद तक जाकर अपनी ईमानदारी को बचाता, और अपने परिवार को तमाम तरह की यातनाओं से गुजरने देता , अन्त में वो चोरी के लिये तैय्यार हो जाता, पर उसको निरन्तर कोसने वाली उसकी पत्नी उसकी ईमानदारी की रक्षा करती !
फिर आयी 'आनन्द', ! उसने बाबू मोशाय को तो जैसे अमर कर दिया! नेहरूजी के निधन के साथ उनके स्वप्नदर्शी समाजवाद का भी अन्त सा प्रतीत हुआ! ऐसे दौर में उनका डॉक्टर अपनी पढाई के औचित्य को तलाशता, जहां दवा का पर्चा तो है, किन्तु पैसे नहीं जिससे दवा खरीदी जा सके । ज़िन्दगी की गाडी का पहिया जब यथार्थ की ज़मीन से टकराता तो उनके नायक का ओछापन नहीं बल्कि उसका जूझने का माद्दा, उसकी अच्छाई और प्रखरता से उभर कर आती।
'अभिमान' बदलते समय की आहट थी । आहत होता पुरुष दर्प किन्तु, किसी भी कीमत पर विवाह को बचाने का, पति से अधिक प्रतिभाशाली पत्नी का प्रयास, फिर पुरूष का समझना और पत्नी को बचाने की उसकी लडाई,। विवाह जैसी सामाजिक संस्था को बचाने का प्रयास । मुझे नहीं मालूम आपको क्या अच्छा लगा, पर मुझे तो अन्त में दोनों का साथ गाना सबसे अच्छा लगा । जब आप अपने आपको व्रहद व्यवस्था का हिस्सा मानते हैं तो आप कहीं न कहीं उसे अपना सर्वस्व दाव पर लगा कर भी बचाने का प्रयत्न करते हैं । वहीं जब आप ही अपने आपको उसके केन्द्र में रख लेते हैं तो अपनी सुविधानुसार उसे तोडते-मरोडते रहते हैं! किसी भी सामाजिक व्यवस्था को समयानुसार पुनर्भाषित करना और बात है, और अपनी इच्छानुसार उसे घुमाना और बात ।
आज के अनियंत्रित व्यक्तिवाद ने क्षणिक आनन्द को भले ही बढा दिया हो परंतु जीवन को जैसे पॉपकोर्न बना दिया है । आज हल्ला ज्यादा हो गया है और रुमानियत कम ।
अक्सर यह कहा जाता है की राम की कहानी कब तक सुनायें । उनकी फिल्मों में भी राम-रावण होते, किन्तु उन्के बीच में युद्ध नहीं होता । कभी राम रावण हो जाता तो कभी रावण राम । उनके लक्षमण, अंगद , मेघनाद अक्सर दुविधाग्रस्त हो जाते की राम कौन और रावण कौन ? कभी रावण राम की विनम्रता की प्रशंसा करता, तो कभी राम रावण के पांडित्य की । कोई किसी की सीता नहीं चुराता, सब मिलकर हमें गुदगुदाते, अनकहे रूप में जीवन की किसी सच्चाई का आभास करा जाते ।
आज 'खूबसूरत' जैसी खूबसूरत फिल्म नहीं बन सकती क्योंकि अनुशासन और आनन्द का वो सन्तुलन भुला दिया गया है ।हर व्यक्ति अपने समय की उपज होता है और कहानियाँ भी ! मुकर्जी साहब अपने समय की उपज थे भी और नहीं भी, क्योंकि उनके समय को जैसा हम याद करते हैं वैसा उन्होंने ही बनाया था । समय को गढ्ने और प्रभावित करने के लिये अपने समाज की समझ, और उसका हिस्सा होने की अनुभूति चाहिये, फार्म हाउसों में कहानियाँ लिखने वाले करन जौहर नहीं, जो अपने कृत्रिम सच (विकृति) समाज पर थोप रहे हों !
हमारे समय के ह्रिषिकेश मुकर्जी कहाँ हैं ।
जो हम ना कह सके
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तंग गलियों में अंधेरी रात को पह्चानिये,
वक्त के ज़ख्मी हुए हालात को पह्चानिये
खूं पसीना दे के लहराता है जो फ़सले बहार,
यार उस इन्सान की औकात को पह्चानिये ।
बज रहे हैं जो हुकूमत के सुरों में रात दिन,
उनके ऐसे मज़हबी नग्मात को पह्चानिये ।
देखकर पगडंडियों पर खून के ताज़ा निशान,
बस्तियों पर भेडियों की घात को पह्चानिये
इस घुटन में भी जो बारिश के लिये हें बेकरार,
बाद्लों की ऐसी हर बरसात को पह्चानिये ॥
----नरेन्द्र कुमार
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7 comments:
आपका कहना सही है । ह्रिषिकेश दा जैसी फ़िल्में कोई बना नहीं सकता । उनकी फ़िल्में साफ़ सुथरी होती थीं । आज का दौर करन जोहर का हैं,जिसमें रिश्ते की कोई अहमियत नही हैं । एक मज़ाक बना दिया हैं सम्बन्धो को ।
तुमने तो मेरे दिल की बात लिख दी. लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और बासू चैटर्जी का वह गुट था वह जो नया रास्ता खोज रहा था.
काफी अच्छा लिखा है आपने।
बहुत सुन्दर लेख, ऋषि दा जैसी तो नहीं फ़िर भी आजकल कभी कभार कुछ अच्छी फ़िल्में बनती हैपर व्यवसायिक दृष्टि से सफ़ल नहीं हो पाती।
बहुत बढिया लिखा । अच्छा लगा पढकर
बहुत खूबसूरत चित्रण किया आपने दीपक भाई। मुखर्जी साहब वाकई एक साधारण सी दिखने वाली फ़िल्म बनाने वाले असाधारण कलाकार थे।
उनकी फ़िल्मों और उसकी बारीकियों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
Deepak ,
sach hai, Hrishi-da, maanviya bhaavnaaon kaa sunder roop sey prekshapan karney me safal rahey, aaj key yug key yuva nidshak sirf commercial cinema ki kaamyabi key baarey me soch kar sambandhon ko tod marod kar darshakon ko paros rahen hai, aapkaa vishleshanatamak lekh saraahaniya hai.
-Smt.renu ahuja.
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