Thursday, August 03, 2006

किसानों की आत्महत्या
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खेती किसानी का मुझे कोई अनुभव नही है। गावों मे रहने की भी बहुत कम समझ है। पर इसके बावजूद किसान भाइयों की दुर्दशा मन को द्रवित करती है। ज़िन्दगी और मौत के बीच में झूलते परिवार कैसे ने आपको सम्भालते होंगे, सोच कर दिल भर जाता है। कौन है इस सबके लिये उतरदायी, मै, आप या समूची व्यवस्था! एकतरफ़ा प्रेम मै असफ़ल होकर जान देती पीढी और कर्ज़ में डूबे किसान दोनो को ही तो मार रही है ये खुली अर्थव्यवस्था! पर पढा-लिखा व्यक्ति आज भी पूंजी के इस खुले खेल का पक्षधर दिखाई देता है। समूचा मीडिया जैसे मध्यवर्ग की रुचियों का सत्यनाश करने पर तुला हुआ है। समाजवाद के ढकोसले के बाद अब पून्जीवाद का अन्धा दौर चला है। हर समस्या का हल निजीकरण मै ढूढा जा रहा है।
करीब दो हज़ार से ज्यादा किसान अकेले विदर्भ के इलाके मै आत्महत्या कर चुके है। किन्तु कही कोई बेचैनी नही दिखायी देती। दो सौ लोगो के विमान के अपहरण पर आसमान सर पे उठाने वाला मीडिया मगन है क्रिकेट और फ़िल्मो की उलट्बासियो मै! इस खुली अर्थव्यवस्था के दौर में खेती को तीसरी दुनिया के देशों का रोजगार समझा जाता है।मै मानता हू कि इतनी बड़ी आबादी के लिये हमै सेवा क्षेत्र के रोजगार को बढाना होगा, पर हम ये कब समझेंगे, कि अकेला वही क्षेत्र एक अरब के देश मै क्या जीविका दे सकता है? लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी को रोजगार देने वाले क्षेत्र की कोई आवाज नही है नीति निर्धारण मै!
एक नागरिक होने के नाते मै इतना ही कह सकता हू कि ये कौन सा अर्थशास्त्र है कि स्व रोजगार मै लगा समुदाय मर रहा है और किसी अन्य की गुलामी करने वाला वर्ग फल-फूल रहा है!!


सबसे बडा प्रश्न यह है कि श्रम आधारित व्यवस्था से पूजी आधारित व्यवस्था की तरफ़ बढ्ते हुए हमने उद्योगो के बारे मै नही सोचा जो न केवल श्रम पर निर्भर है बल्कि हमारी व्यवस्था की रीढ़ है।
यह एक कटु सत्य है कि जब समूची दुनिया की इकोनोमी मन्दी के दौर में थी तब हम बच गये क्योकि हमारा बुनियादी आधार कृषि है।, जिसका ढाचा सदियों मॆं बना है, और जो बहुत जल्दी नही हिलता। रुमानी तौर से सोचने से कुछ नही होगा, बाज़ारवाद के इस दौर में खेती कैसे मुनाफ़ा दे सके इस पर सोचना होगा!

जो हम न कह सके
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पेशकार से कलेक्टर तक
केमिस्ट से डोक्टर तक
सचिव से मिनिस्टर तक
एडीए, बीडीए, सीडीए
डीडीए, जीडीए, आदि-आदि मॆं
कार्यरत क्लेर्को से अफ़सरो तक
मेट से कोन्ट्रच्टर तक
सिपाही से कमिश्नर तक
दलालो से शेयर होल्डरों तक
डीलरों से बिल्ड्ररों तक
छुट्भैयों से स्मगलरों तक
समस्त सरकारी
अर्धसरकारी
गैर सरकारी आदि आदि संसथाओं में
कम या अधिक लाभ के पदो पर आसीन
जितने भी है हम सब
संयोग से शिक्षित हैं
और
यह भी संयोग ही है कि
हमारे देश को निरन्तर
चिन्ताजनक स्थिति में
ले जाने का श्रेय भी
इसी शिक्षित वर्ग को प्राप्त है
धन्य है हम, और हमारा आदर्श शिक्षित वर्ग,
कैसी है ये शिक्षा जिसका
विनय से कोई सरोकार नही
कैसी है वह शिक्षा जो
इन्सान को हैवान से भी बदतर स्तर तक लिये जा रही है
किस शान का आलोक है जो
मानवता को निरन्तर अन्धेरी खाई मै गिरा रहा है ?

--सरवर हसन

3 comments:

hemanshow said...

हिन्दी चिठ्ठे लेखन प्रारम्भ पर बधाई। आशा है आप अपने अनुभव के निचोड को यहां रखते रहेंगे और पढने वाले न केवल आनन्दित होंगे बल्कि यह चिठ्ठा एक सशक्त सकारत्मक विचारों को जन्म देगा।

अनूप भार्गव said...

दीपक:
तुम्हारा 'हिन्दी ब्लौग जगत' में स्वागत है । 'खुले दिमाग से किया गया , पूर्वाग्रहों से मुक्त - स्वस्थ चिंतन' तुम्हारे चिट्ठे की पहचान बनें - इसी शुभकामना के साथ ।

अनूप

Sunil Deepak said...

प्रिय दीपक, तुम्हारी टिप्पणी और प्रशंसा के लिए धन्यवाद. जहाँ तक मुझे मालूम है जनसत्ता इंटरनेट पर नहीं है, ओम जी मुझे अपने लेख भेज देते हैं.
सुनील