Saturday, February 03, 2007

हमारी समझ का घूमता आईना

नेट पर अखबार पढ्ते हुए पता चला कि महिलाओं की फोटो वाला नया कैलेंडर छ्पा है । हमारे देश के एक उद्योगपति प्रति वर्ष इसे छ्पवाते हैं । अब मै ये तो नहीं कह सकता कि वो सदा की तरह इस बार भी अश्लील था, क्योंकि इस पर फ़िल्म जगत के स्वनामधन्य प्रवक्ता मुझ से ये पूछेंगे, कि अश्लील को परिभाषित कीजिये । अब आप ही बताइये कि ये कैसे किया जा सकता है, यदि आप कोई भी परिभाषा देंगे उसे वो विवादास्पद बना देंगे । पर इतना जरूर कहूंगा कि निठारी की खबरों के बीच ये एक बेहूदे मजाक सा लगा ।

हमारे देश में अनेक सदियों के लोग एक साथ रहते रहे हैं । हर एक अपने में मशगूल और मस्त । यहाँ तक तो सभी कुछ ठीक ही था, पर मीडिया के प्रसार ने जैसे प्रभुत्व वर्ग के अच्छे बुरे जीवन को हर घर में पहुँचा दिया है, जिस से लगने लगा है कि सब कुछ अचानक बहुत साफ़ सुथरा हो गया है ।

कैलेंडर से झाँकती स्त्री और निठारी में अपने बच्चों की फोटो हाथ में लिये खड़ी स्त्री, दोनों ही तो सच है । दोनो ही दर्दनाक सच । ये सब दिमाग मे चल ही रहा था कि कुंभ शुरु हो गया । लाखों लोग सिर पर सामान बांधे पहुच गये, गंगा के तट पर उस गंगाजी के पास जिसे नाले के स्तर तक दूषित किया जा चुका है । यह कचरा गंगाजी में उन लोगों के संसाधन जुटाने के लिये फेंका जा रहा है, जिनके घर की स्त्रियाँ अर्धनग्न अवस्था मे कैलेंडर से झाँक रहीं थीं ।

कुंभ में आने वाले लाखों बेचारे कभी ये नहीं समझ पायेंगे कि गंगा उनके तट से किसने दूर कर दी । ये केवल गंगा का दूर होना नहीं है, बल्कि देश के अंदर, देश के लोगों के लिये सिकुड़्ते अवसरों और जीवन दायिनी शक्तियों के छीन लिये जाने कि एक अविरल दास्तान है ।

कैलेंडर वाली स्त्रियों के बच्चे नहीं हैं, निठारी वाली स्त्रियॊं के बच्चे छीन लिये गये । शोषित तो दोनो ही हैं, एक नियोन की मटमैली चकाचोंध में और एक गरीबी के अंधेरे में । किन्तु सच यह भी है कि एक छ्लावा है, और एक आखॊं में सिहरता यथार्थ । दौर कुछ ऐसा है कि निठारी की गरीब स्त्री करुणा तो उपजाती है पर हमारा हिस्सा होने का अहसास नहीं जगा पाती, हम यही सोचते हैं कि हमारे साथ ऐसा नहीं हो सकता।
वहीं कैलेंडर वाली प्रगतिशीलता का पर्याय मान ली जाती है । बाजार दोनों का उपयोग कर रहा है एक करुणा के लिये तो दूसरी का जुगुप्सा जगाने के लिये।

मुझे लगता है कि कैलेंडर वाली हमारे अन्दर आक्रोश पैदा नंही करती, ये जानते हुए भी कि वो समर्थ होकर भी बाज़ार के हाथों मैं खेल रही है । इस्लामी आतंकवाद का दुनियावी चेहरा, टीवी पर झाँकती बुर्काग्रस्त स्त्री, ने हमें जाने अनजाने ही कैलेंडर वाली स्त्री के पक्ष मैं खड़ा कर दिया है । ये वैसा ही है कि वीपी सिंह के मंडल आयोग का विरोध करने वाले रातों-रात आडवाणी के साथ राम भक्त हो गये ।
बचपन से स्त्री की दो ही छवियाँ याद हैं, फ़िल्मों मै अपमानित होती स्त्री और नवरात्रि की महिषासुर मर्दिनी । ये कैलेंडर कहाँ से आ गया । हमारी मानसिकता में ये शनै: शनै: होता परिवर्तन ही कहीं गंगा जी के तट से दूर जाने के लिये जिम्मेदार तो नही है । काफ़ी समय पहले मानुषी पत्रिका मैं मधु किश्वर जी का एक लेख पढा था कि आम भारतीय के मन मैं बैठा 'बहनजी' वाला रूप ही स्त्री का सबसे बडा सुरक्षा कवच है ।

किन्तु हम भी धीरे धीरे यह मानने लगे हैं की माडर्न होने का संबंध इसी बाजारुपन से है । हमारा यही बदलता सच हमे निठारी की लडाई को उसके उचित परिणाम तक नहीं ले जाने दे रहा। हम जिस गली में रहते है उसकी लडाई को लड़ना पिछ्डापन समझने लगे हैं और उन दूधिया रोशनी में अपना जिस्म लुढ़्काते लोगों का ही हिस्सा अपने को मानते जा रहे हैं। आप किसी से भी पूछिये "क्या फ़ैशन शो मे अपने वस्त्रविहीन ओछी नुमाइश करना प्रगतिशीलता है तो उत्तर नही प्रतिप्रशन मिलता है कि " नहीं तो क्या बुर्का पहनना आधुनिकता है?" यही है हमारा भदेसपन । निठारी और कुंभ इन दोनों तरह के अतिवाद के मध्य में है और यही हमारा सच है।

अपने ड्राइंग रूम से निकलकर खिड़की खोलकर तो देखिये निठारी दिखायी देगा । चौराहे पर चलकर जाइये कुंभ को ले जाती बस खड़ी मिलेगी । इन दोनों जगह पर ही हमें 'बहनजी" मिलेगी, एक जगह डुबकी लगाकर् सूर्यनारायण को अर्घ्य देती हुई तो दूसरी अपने बच्चे को ढूंढती हुई । इन बहनों की डुबकी बची रहे इसलिये गंगा की सफ़ाई की सोचिये और अपने रहनुमाओ से निठारी का जवाब मांगिये, अन्यथा जो आप देख रहे हैं वहाँ वैसे भी लोग 'चढ़कर" नहीं "उतारकर" ही पहुँचते हैं।

बकौल ग्यानेन्द्रपति
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चन्द्रमा का उदय
हमने कबसे नहीं देखा,
प्राय: उस समय
टीवी के किसी न किसी चैनल पर
कोई न कोई नैनसुख कार्यक्रम चलता रहता है,
कोई न कोई चन्द्रमुखी
उजागर कर रही होती है
हमारे जीवन का अंधेरा ।