Wednesday, November 22, 2006

फ़िल्म समीक्षक जी चश्मा बदलिये ॥

जैसे ही हफ़्ता दो हफ़्ता पहले पता चला कि 'विवाह' रिलीज़ होने वाली है, मै 'पढे़-लिखों' की जानी पहचानी प्रतिक्रिया के लिये मानसिक तौर पर तैयार होने लगा । उसके रिलीज़ होने से पहले ही ये तय था कि विशेषज्ञों को ये फ़िल्म पसन्द नहीं आयेगी । फिर फिल्म कैसी भी हो ! मेरे अनुमान के मुताबिक ही हुआ और सभी ने उसे अप्रासंगिक' फ़िल्म करार दे दिया । अब आज के युग में जीने की आदत सी डाल रहा हूँ । 'स्वदेस' , 'शिखर' के साथ भी ऐसा ही तो हुआ था । फ़िल्म के भविष्य में और किसी राजनैतिक रैली के भविष्य में कोई फ़र्क नहीं दिखता है । जैसे 'करण जौहर' भैया की कोनऊ फ़िल्म फ़्लोप नहीं हो सकती है, आप सारा जोर लगा लीजिये, ऊ मनेज करना जो जानते हैं । करन भैया हमारी फ़िल्मो के लालू हैं, जैसे लालू की हर रैली हिट, किन्तु बिहार फ़ैल, ऐसे ही उनकी फ़िल्म हिट किन्तु कहानी मत पूछो ।

खैर, अब राजश्री वालों को फ़िल्म बनाना बन्द कर देना चाहिये । क्योंकि वो मध्यम वर्गीय मूल्यों की बात करती है, भारतीयता के प्रति आग्रह रखती हैं, ये सब आउटडेटॆड हो चुके हैं ।

लेकिन अबकी बार गड़बड़ हो गयी, सारी कोशिशों के बावजूद 'विवाह' हिट हो गयी । बडे़ दुख के साथ खबर दी गयी । बडे़ शहर के मल्टीप्ले़क्स तो खाली थे , पर ससुरे ये छोटे शहर वाले रहे जाहिल के जाहिल, फिर देखने पहुँच गये वही शादी का वीडिय़ो, आजकल शादी कौन करता है, ? आज की पीढी़ का तो शादी पर से ही विश्वास उठता जा रहा है, भैया ये पीढी़ कहाँ है, आपके अपने बेटे-बेटी को छोडकर । जब भी चुनाव की तारीख तय करने की बात आती है तो चुनाव आयोग को ये ध्यान रखना पढ़्ता है की शादी के मौसम में वोटिंग ना हो, क्योंकि लोग वोट देने नहीं आते ।

जब 'मर्डर' जैसी फ़िल्में हिट हो गयी थीं तो पूरा मीडिया शोर मचाने लगा था, कि अब फ़िल्मों का ट्रेंड बदल गया है । अब कोई नहीं कह रहा की ट्रेंड बदल गया है । सफ़लता का चित्रण भी हमारे व्याव्सायिक हितों को ध्यान में रखकर हो रहा है । ऐसा कोई भी माध्यम जो 'सामूहिक चेतना' की वकालत करता है, उसे नष्ट किया जाता है ।

पिछ्ले कुछ समय से ये देख रहा हूँ, कि कोई भी फिल्म थोडा़ भी असली भारत की बात करती है, उसे बाहर आने से पहले ही खारिज करने के नियोजित प्रयास शुरु हो जाते हैं । ज़रा सोचिये कि ये व्यवहार राजश्री की फ़िल्म के साथ है तो कोई आम निर्माता कैसे हिमाकत करेगा, कोइ रचनात्मक फ़िल्म बनाने की ।

मेरा ये मानना है किसी भी फ़िल्म की आलोचना उसके तकनीक पर और कहानी की कसावट पर होनी चाहिये न कि उसके विषय पर । हर पत्रकार? ने बातचीत मै सूरज बड़जात्या से ये सवाल जरूर पूछा कि आज के दौर मै आपने ऐसी फ़िल्म क्यों बनायी । किसी ने ये सवाल 'मर्डर' बनाने वालों से नही पूछा । पेशागत मजबूरी ना होती तो ये लोग इस फ़िल्म की बात ही नहीं करते । अपनी पह्चान को भूल जाइये, वो तो पिछ्डा़पन है, । 'बोल्ड' फ़िल्मॊ का जमाना है, 'सोबर' फ़िल्मों का नही । किसने लाया ये जमाना । हमने तो नहीं ।

दिल्ली से पचास किलोमीटर दूर सरकार नहीं दिखती, देश दिखता है । जहाँ आज भी हिन्दू परिवार में शादी सबसे बडा़ उत्सव है !

एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, कि यदि तरक्की करना है, तो अपना सब कुछ भूलना पडे़गा । बढ़्ते शहरीकरण ने परिवार खत्म कर दिये हैं । चैनलो के शोर, और सुविधाओं की होड़ ने ये भुला दिया है कि हम कौन हैं । समाज के सारे संसाधनों पर, उसकी सोच पर पूरी तरह से इसी पेटू वर्ग का कब्जा होता जा रहा है । य़े हर उस चीज को मिटाना चाहता है, नकारना चहता है जो इसे अपराध-बोध करा सकती है ।

हमने तो सीखा था बोल्डनेस अश्लीलता में नही, अपने परिवेश की समस्याओं से लड़ने में है, जैसा 'स्वदेस' का नायक करता है, ट्रेंड एक दूसरे की स्त्री को लेकर भागने का नही, बल्कि उसे सँवारने का होना चाहिये, जैसा 'शिखर' में होता है, उस में पहली बार पलायन की त्रासदी को, धरती की उर्वरता के प्रश्न उठाया गया, किन्तु सब कुछ को नकारकर फ़िल्म को नियोजित ढंग से फ़्लाप करा दिया गया ।

क्या हम एक ऐसे दौर में पहुँच गये हैं जहाँ किसी अच्छाई के लिये कोई जगह नहीं है? घर का दिया बुझाकर पडो़सी की रोशनाई पर जश्न करने का ये स्वांग कब तक चलेगा ?

सृजनशिल्पी जी की पानी की बहस पर अक्सर सभी का ये मत था कि बताओ क्या करें, फ़िल्मॊ के मामले में तो ऎसा नही है, हम सभी अच्छी फ़िल्में देखे, खास कर वे जो हमे हीनताबोध कराने की बजाय उठाती हों, अपने आसपास की चीजो से हमे जोड़ती हों, और सबसे जरूरी अपने जैसी लगती हों ।

जो हम न कह सके
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कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ के सो ।
जैसा उठा, वैसा गिरा बिछौने पर,
तिफ़्ल जैसा प्यार, यह जीवन खिलौने पर,
बिना समझे, बिना बूझे खेलते जाना,
एक जिद को जकड़कर ठेलते जाना,
गलत है, बेसूद है कुछ रच के सो, कुछ गढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़ के सो,

दिन भर इबारत पेड़, पत्ती और पानी की,
बंद घर की, खुले-फ़ैले खेतधानी की,
हवा की, बरसात की, हर खुश्क की, हर तर की,
गुजरती दिन भर रही जो आप की 'पर' की,
उस इबारत के सुनहरे बर्क के मन मढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़ के सो ।

लिखा सूरज ने किरन की कलम लेकर,
नाम लेकर जिसे पंछी ने पुकारा जो हवा जो कुछ गा गयी,
बरसात जो बरसी, जो इबारत नदी बनकर नदी पर दरसी,
उस इबारत की अगरचे सीढि़याँ हैं, चढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़ के सो ।

- भवानी प्रसाद मिश्र