Saturday, February 03, 2007

हमारी समझ का घूमता आईना

नेट पर अखबार पढ्ते हुए पता चला कि महिलाओं की फोटो वाला नया कैलेंडर छ्पा है । हमारे देश के एक उद्योगपति प्रति वर्ष इसे छ्पवाते हैं । अब मै ये तो नहीं कह सकता कि वो सदा की तरह इस बार भी अश्लील था, क्योंकि इस पर फ़िल्म जगत के स्वनामधन्य प्रवक्ता मुझ से ये पूछेंगे, कि अश्लील को परिभाषित कीजिये । अब आप ही बताइये कि ये कैसे किया जा सकता है, यदि आप कोई भी परिभाषा देंगे उसे वो विवादास्पद बना देंगे । पर इतना जरूर कहूंगा कि निठारी की खबरों के बीच ये एक बेहूदे मजाक सा लगा ।

हमारे देश में अनेक सदियों के लोग एक साथ रहते रहे हैं । हर एक अपने में मशगूल और मस्त । यहाँ तक तो सभी कुछ ठीक ही था, पर मीडिया के प्रसार ने जैसे प्रभुत्व वर्ग के अच्छे बुरे जीवन को हर घर में पहुँचा दिया है, जिस से लगने लगा है कि सब कुछ अचानक बहुत साफ़ सुथरा हो गया है ।

कैलेंडर से झाँकती स्त्री और निठारी में अपने बच्चों की फोटो हाथ में लिये खड़ी स्त्री, दोनों ही तो सच है । दोनो ही दर्दनाक सच । ये सब दिमाग मे चल ही रहा था कि कुंभ शुरु हो गया । लाखों लोग सिर पर सामान बांधे पहुच गये, गंगा के तट पर उस गंगाजी के पास जिसे नाले के स्तर तक दूषित किया जा चुका है । यह कचरा गंगाजी में उन लोगों के संसाधन जुटाने के लिये फेंका जा रहा है, जिनके घर की स्त्रियाँ अर्धनग्न अवस्था मे कैलेंडर से झाँक रहीं थीं ।

कुंभ में आने वाले लाखों बेचारे कभी ये नहीं समझ पायेंगे कि गंगा उनके तट से किसने दूर कर दी । ये केवल गंगा का दूर होना नहीं है, बल्कि देश के अंदर, देश के लोगों के लिये सिकुड़्ते अवसरों और जीवन दायिनी शक्तियों के छीन लिये जाने कि एक अविरल दास्तान है ।

कैलेंडर वाली स्त्रियों के बच्चे नहीं हैं, निठारी वाली स्त्रियॊं के बच्चे छीन लिये गये । शोषित तो दोनो ही हैं, एक नियोन की मटमैली चकाचोंध में और एक गरीबी के अंधेरे में । किन्तु सच यह भी है कि एक छ्लावा है, और एक आखॊं में सिहरता यथार्थ । दौर कुछ ऐसा है कि निठारी की गरीब स्त्री करुणा तो उपजाती है पर हमारा हिस्सा होने का अहसास नहीं जगा पाती, हम यही सोचते हैं कि हमारे साथ ऐसा नहीं हो सकता।
वहीं कैलेंडर वाली प्रगतिशीलता का पर्याय मान ली जाती है । बाजार दोनों का उपयोग कर रहा है एक करुणा के लिये तो दूसरी का जुगुप्सा जगाने के लिये।

मुझे लगता है कि कैलेंडर वाली हमारे अन्दर आक्रोश पैदा नंही करती, ये जानते हुए भी कि वो समर्थ होकर भी बाज़ार के हाथों मैं खेल रही है । इस्लामी आतंकवाद का दुनियावी चेहरा, टीवी पर झाँकती बुर्काग्रस्त स्त्री, ने हमें जाने अनजाने ही कैलेंडर वाली स्त्री के पक्ष मैं खड़ा कर दिया है । ये वैसा ही है कि वीपी सिंह के मंडल आयोग का विरोध करने वाले रातों-रात आडवाणी के साथ राम भक्त हो गये ।
बचपन से स्त्री की दो ही छवियाँ याद हैं, फ़िल्मों मै अपमानित होती स्त्री और नवरात्रि की महिषासुर मर्दिनी । ये कैलेंडर कहाँ से आ गया । हमारी मानसिकता में ये शनै: शनै: होता परिवर्तन ही कहीं गंगा जी के तट से दूर जाने के लिये जिम्मेदार तो नही है । काफ़ी समय पहले मानुषी पत्रिका मैं मधु किश्वर जी का एक लेख पढा था कि आम भारतीय के मन मैं बैठा 'बहनजी' वाला रूप ही स्त्री का सबसे बडा सुरक्षा कवच है ।

किन्तु हम भी धीरे धीरे यह मानने लगे हैं की माडर्न होने का संबंध इसी बाजारुपन से है । हमारा यही बदलता सच हमे निठारी की लडाई को उसके उचित परिणाम तक नहीं ले जाने दे रहा। हम जिस गली में रहते है उसकी लडाई को लड़ना पिछ्डापन समझने लगे हैं और उन दूधिया रोशनी में अपना जिस्म लुढ़्काते लोगों का ही हिस्सा अपने को मानते जा रहे हैं। आप किसी से भी पूछिये "क्या फ़ैशन शो मे अपने वस्त्रविहीन ओछी नुमाइश करना प्रगतिशीलता है तो उत्तर नही प्रतिप्रशन मिलता है कि " नहीं तो क्या बुर्का पहनना आधुनिकता है?" यही है हमारा भदेसपन । निठारी और कुंभ इन दोनों तरह के अतिवाद के मध्य में है और यही हमारा सच है।

अपने ड्राइंग रूम से निकलकर खिड़की खोलकर तो देखिये निठारी दिखायी देगा । चौराहे पर चलकर जाइये कुंभ को ले जाती बस खड़ी मिलेगी । इन दोनों जगह पर ही हमें 'बहनजी" मिलेगी, एक जगह डुबकी लगाकर् सूर्यनारायण को अर्घ्य देती हुई तो दूसरी अपने बच्चे को ढूंढती हुई । इन बहनों की डुबकी बची रहे इसलिये गंगा की सफ़ाई की सोचिये और अपने रहनुमाओ से निठारी का जवाब मांगिये, अन्यथा जो आप देख रहे हैं वहाँ वैसे भी लोग 'चढ़कर" नहीं "उतारकर" ही पहुँचते हैं।

बकौल ग्यानेन्द्रपति
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चन्द्रमा का उदय
हमने कबसे नहीं देखा,
प्राय: उस समय
टीवी के किसी न किसी चैनल पर
कोई न कोई नैनसुख कार्यक्रम चलता रहता है,
कोई न कोई चन्द्रमुखी
उजागर कर रही होती है
हमारे जीवन का अंधेरा ।

Wednesday, November 22, 2006

फ़िल्म समीक्षक जी चश्मा बदलिये ॥

जैसे ही हफ़्ता दो हफ़्ता पहले पता चला कि 'विवाह' रिलीज़ होने वाली है, मै 'पढे़-लिखों' की जानी पहचानी प्रतिक्रिया के लिये मानसिक तौर पर तैयार होने लगा । उसके रिलीज़ होने से पहले ही ये तय था कि विशेषज्ञों को ये फ़िल्म पसन्द नहीं आयेगी । फिर फिल्म कैसी भी हो ! मेरे अनुमान के मुताबिक ही हुआ और सभी ने उसे अप्रासंगिक' फ़िल्म करार दे दिया । अब आज के युग में जीने की आदत सी डाल रहा हूँ । 'स्वदेस' , 'शिखर' के साथ भी ऐसा ही तो हुआ था । फ़िल्म के भविष्य में और किसी राजनैतिक रैली के भविष्य में कोई फ़र्क नहीं दिखता है । जैसे 'करण जौहर' भैया की कोनऊ फ़िल्म फ़्लोप नहीं हो सकती है, आप सारा जोर लगा लीजिये, ऊ मनेज करना जो जानते हैं । करन भैया हमारी फ़िल्मो के लालू हैं, जैसे लालू की हर रैली हिट, किन्तु बिहार फ़ैल, ऐसे ही उनकी फ़िल्म हिट किन्तु कहानी मत पूछो ।

खैर, अब राजश्री वालों को फ़िल्म बनाना बन्द कर देना चाहिये । क्योंकि वो मध्यम वर्गीय मूल्यों की बात करती है, भारतीयता के प्रति आग्रह रखती हैं, ये सब आउटडेटॆड हो चुके हैं ।

लेकिन अबकी बार गड़बड़ हो गयी, सारी कोशिशों के बावजूद 'विवाह' हिट हो गयी । बडे़ दुख के साथ खबर दी गयी । बडे़ शहर के मल्टीप्ले़क्स तो खाली थे , पर ससुरे ये छोटे शहर वाले रहे जाहिल के जाहिल, फिर देखने पहुँच गये वही शादी का वीडिय़ो, आजकल शादी कौन करता है, ? आज की पीढी़ का तो शादी पर से ही विश्वास उठता जा रहा है, भैया ये पीढी़ कहाँ है, आपके अपने बेटे-बेटी को छोडकर । जब भी चुनाव की तारीख तय करने की बात आती है तो चुनाव आयोग को ये ध्यान रखना पढ़्ता है की शादी के मौसम में वोटिंग ना हो, क्योंकि लोग वोट देने नहीं आते ।

जब 'मर्डर' जैसी फ़िल्में हिट हो गयी थीं तो पूरा मीडिया शोर मचाने लगा था, कि अब फ़िल्मों का ट्रेंड बदल गया है । अब कोई नहीं कह रहा की ट्रेंड बदल गया है । सफ़लता का चित्रण भी हमारे व्याव्सायिक हितों को ध्यान में रखकर हो रहा है । ऐसा कोई भी माध्यम जो 'सामूहिक चेतना' की वकालत करता है, उसे नष्ट किया जाता है ।

पिछ्ले कुछ समय से ये देख रहा हूँ, कि कोई भी फिल्म थोडा़ भी असली भारत की बात करती है, उसे बाहर आने से पहले ही खारिज करने के नियोजित प्रयास शुरु हो जाते हैं । ज़रा सोचिये कि ये व्यवहार राजश्री की फ़िल्म के साथ है तो कोई आम निर्माता कैसे हिमाकत करेगा, कोइ रचनात्मक फ़िल्म बनाने की ।

मेरा ये मानना है किसी भी फ़िल्म की आलोचना उसके तकनीक पर और कहानी की कसावट पर होनी चाहिये न कि उसके विषय पर । हर पत्रकार? ने बातचीत मै सूरज बड़जात्या से ये सवाल जरूर पूछा कि आज के दौर मै आपने ऐसी फ़िल्म क्यों बनायी । किसी ने ये सवाल 'मर्डर' बनाने वालों से नही पूछा । पेशागत मजबूरी ना होती तो ये लोग इस फ़िल्म की बात ही नहीं करते । अपनी पह्चान को भूल जाइये, वो तो पिछ्डा़पन है, । 'बोल्ड' फ़िल्मॊ का जमाना है, 'सोबर' फ़िल्मों का नही । किसने लाया ये जमाना । हमने तो नहीं ।

दिल्ली से पचास किलोमीटर दूर सरकार नहीं दिखती, देश दिखता है । जहाँ आज भी हिन्दू परिवार में शादी सबसे बडा़ उत्सव है !

एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, कि यदि तरक्की करना है, तो अपना सब कुछ भूलना पडे़गा । बढ़्ते शहरीकरण ने परिवार खत्म कर दिये हैं । चैनलो के शोर, और सुविधाओं की होड़ ने ये भुला दिया है कि हम कौन हैं । समाज के सारे संसाधनों पर, उसकी सोच पर पूरी तरह से इसी पेटू वर्ग का कब्जा होता जा रहा है । य़े हर उस चीज को मिटाना चाहता है, नकारना चहता है जो इसे अपराध-बोध करा सकती है ।

हमने तो सीखा था बोल्डनेस अश्लीलता में नही, अपने परिवेश की समस्याओं से लड़ने में है, जैसा 'स्वदेस' का नायक करता है, ट्रेंड एक दूसरे की स्त्री को लेकर भागने का नही, बल्कि उसे सँवारने का होना चाहिये, जैसा 'शिखर' में होता है, उस में पहली बार पलायन की त्रासदी को, धरती की उर्वरता के प्रश्न उठाया गया, किन्तु सब कुछ को नकारकर फ़िल्म को नियोजित ढंग से फ़्लाप करा दिया गया ।

क्या हम एक ऐसे दौर में पहुँच गये हैं जहाँ किसी अच्छाई के लिये कोई जगह नहीं है? घर का दिया बुझाकर पडो़सी की रोशनाई पर जश्न करने का ये स्वांग कब तक चलेगा ?

सृजनशिल्पी जी की पानी की बहस पर अक्सर सभी का ये मत था कि बताओ क्या करें, फ़िल्मॊ के मामले में तो ऎसा नही है, हम सभी अच्छी फ़िल्में देखे, खास कर वे जो हमे हीनताबोध कराने की बजाय उठाती हों, अपने आसपास की चीजो से हमे जोड़ती हों, और सबसे जरूरी अपने जैसी लगती हों ।

जो हम न कह सके
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कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ के सो ।
जैसा उठा, वैसा गिरा बिछौने पर,
तिफ़्ल जैसा प्यार, यह जीवन खिलौने पर,
बिना समझे, बिना बूझे खेलते जाना,
एक जिद को जकड़कर ठेलते जाना,
गलत है, बेसूद है कुछ रच के सो, कुछ गढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़ के सो,

दिन भर इबारत पेड़, पत्ती और पानी की,
बंद घर की, खुले-फ़ैले खेतधानी की,
हवा की, बरसात की, हर खुश्क की, हर तर की,
गुजरती दिन भर रही जो आप की 'पर' की,
उस इबारत के सुनहरे बर्क के मन मढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़ के सो ।

लिखा सूरज ने किरन की कलम लेकर,
नाम लेकर जिसे पंछी ने पुकारा जो हवा जो कुछ गा गयी,
बरसात जो बरसी, जो इबारत नदी बनकर नदी पर दरसी,
उस इबारत की अगरचे सीढि़याँ हैं, चढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़ के सो ।

- भवानी प्रसाद मिश्र

Tuesday, October 17, 2006

फाँसी अफ़ज़ल को नहीं तो क्या हमें दीजिये
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कोफ़्त होती है कभी-कभी हमारे देश के सार्वजनिक जीवन के स्तर को देखकर !
यहां पर आप किसी भी मुददे पर बहस चला सकते है, और ऐसे विषयों को चर्चा से बाहर कर सकते हैं जो वास्तव मे जनता के पक्ष मे उठते है ।
ये केवल हमारे यहां सम्भव है कि एक लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या पर इतनी बहस नही हुई होगी जितनी अफ़ज़ल की फाँसी पर हो रही है ।
आप कोई भी विषय शुरु कर दीजिये और मीडिया के चैनल और अखबार की जगह भरना शुरु । वाह रे सूचना युग, इस से तो अच्छा पुरातन युग था जब मर जाते थे मारे तो नही जाते थे !

अफ़्जल को क्या हो, क्या नही ये परेशानी का कारण नही है, समझ नही आती प्राथमिकतायें ! जो देश की संसद पर हमला करते हैं वो बच जाते है, किन्तु जो खुद ही मरने पर मजबूर हैं, उनकी मत सुनिये ! मारने वाले की सुनवायी है मरने वालों की नही ? कुछ वर्षो के बाद विदर्भ नक्सली गढ़ बन जाये तो आश्चर्य क्या है ?

इस देश में वैसे ही न्याय नहीं होता, बडी मुश्किल में होता है तो उस पर राजनीति होने लगती है ! मै ये मान भी लूं की उसको गलत फाँसी हुई है,तो भी किसी को भी न्याय प्रक्रिया के बीच मे नहीं पड़्ना चाहिये । कश्मीर के लोग ये कह्ते हैं की अगर फाँसी हुई तो घाटी जल जायेगी ! घाटी तो वैसे ही जल रही है पिछ्ले २० वर्षो से ! देश को एक बारगी छोड़ भी दे तो भी घाटी ने ही कीमत चुकायी है उसके जलने की!लगभग अस्सी हज़ार लोग मारे जा चुके है कश्मीर में । एक मित्र कश्मीर से लौटे, मैने पूछा, कैसे हालात हैं, कहने लगे थोडे़ दिनों बाद श्मशान ले जाने के लिये पुरूष नहीं मिलेंगे !!!

ओ कश्मीर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, ये पहला संग्राम होगा जो अपने ही लोगों की हत्या करता हो !

जब तक सत्ता धमकियों के आगे झुकती रहेगी तब तक वह ब्लेकमेल होती रहेगी ! अगर हम एक ही नियम बना ले की हम बन्दूक चलाने वालों से बात नही करेगे, और हर अहिंसक आन्दोलन को सुनेंगे, तो देश वास्तव मे समता मूलक रास्ते पर बढेगा ! अफ़ज़ल को तो फाँसी इन धमकियों को शान्त करने के लिये ही हो जानी चाहिये कि सरकार को डराया जा सकता है !

क्या करूं, किसानों के बेटों से बन्दूक उठाने को कहूं, क्योंकि आज भी उसका मिलना आसान है बजाय रोटी के!

अफ़ज़ल को छोडि़ये, आज पूरे देश के मानस में ये बात बैठती जा रही है, कि अपनी बात सुनवानी है तो तोड़-फोड़ करो! ये मानस बदलना चहिये, अन्यथा नगर पालिका के नल पर पानी से लेकर, संसद तक केवल हिंसा ही दिखायी देगी !

Thursday, August 31, 2006

ह्रिषिकेश मुकर्जी : मानवीय ऊष्मा के सफ़ल चितेरे
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मुकर्जी साहब चले गये, अच्छा ही हुआ, अब भूले-भटके कभी उनकी फिल्में याद नहीं दिलायेंगी कि फिल्में ऎसी भी होती हैं ! आज हम जिस तथाकथित यथार्थ के दौर की बातें करते हैं, उसमें सब कुछ इतना काला क्यों है? क्या यथार्थ केवल और केवल नकारात्मकता लिये हुए ही होता है!

मुकर्जी साहब के ज़माने में दुनिया भूमंड्लीकृत नहीं थी, हम अपनी छोटी किन्तु गैर मामूली दुनिया में अपने दुखों और सुखो के साथ मगन थे । मुकर्जी साहब की फिल्मों के नायक अक्सर गैर राजनीतिक होते थे, जैसा कि आम आदमी होता है । डरा हुआ, अपने छोटे से संसार को सहेजने और सजाने का प्रयत्न करता हुआ, व्यवस्था की मार, उसकी निर्लज्जता से अपने कदमों को जैसे साधता सा!

मैं फिल्मों का शौकीन नहीं हूं । किन्तु जब भी उनकी कोई फिल्म देखता तो फील गुड होता, ये फील गुड प्रमोद महाजन वाला नहीं था, जिसमें एक माल उडाये और दस उसको टापते रहें!, बल्कि वो उन टापने वाले दस के 'आनन्द' की कथा होती ।

उनकी 'गुडडी' जैसे अपने समय की निम्न मध्यवर्गीय लडकियों की प्रतिनिधि बन गयी! हर लडकी ने 'गुडडी' में अपने आप को ढूंढा! तब लडकियाँ जलवे नहीं बिखेरा करतीं थी(मीडिया की भाषा में) वरन, वे जैसे हमारे गली मोहल्लों, कस्बों को जोडने वाली सेतु हुआ करतीं थीं! मेरे घर के पीछे रहती थी 'सोनू'। पूरे दिन मोहल्ले के सब लोगों को चिल्लाती रहती, किसके यहां आज क्या बन रहा है, कौन क्या कर रहा है, ये जानना नहीं पडता , दिन भर आप के कानों में उसकी आवाज़ ये बताती रह्ती । उसकी शादी हुई, वो चली गयी, बाद में जब उस से मुलाकात हुई तो मैने कहा, तुम हमारे मोहल्ले की 'गुड्डी' थी! वो बहुत खुश हुई!!

उनका 'बावर्ची' भोजन से ज़्यादा मानवीय तरलता पकाता, एक ही छत के नीचे रहते हुए जो छोटी-छोटी ग्रंथियां बन जाती वह उन्हें ढीला करता! 'सत्यकाम' पागलपन की हद तक जाकर अपनी ईमानदारी को बचाता, और अपने परिवार को तमाम तरह की यातनाओं से गुजरने देता , अन्त में वो चोरी के लिये तैय्यार हो जाता, पर उसको निरन्तर कोसने वाली उसकी पत्नी उसकी ईमानदारी की रक्षा करती !

फिर आयी 'आनन्द', ! उसने बाबू मोशाय को तो जैसे अमर कर दिया! नेहरूजी के निधन के साथ उनके स्वप्नदर्शी समाजवाद का भी अन्त सा प्रतीत हुआ! ऐसे दौर में उनका डॉक्टर अपनी पढाई के औचित्य को तलाशता, जहां दवा का पर्चा तो है, किन्तु पैसे नहीं जिससे दवा खरीदी जा सके । ज़िन्दगी की गाडी का पहिया जब यथार्थ की ज़मीन से टकराता तो उनके नायक का ओछापन नहीं बल्कि उसका जूझने का माद्दा, उसकी अच्छाई और प्रखरता से उभर कर आती।

'अभिमान' बदलते समय की आहट थी । आहत होता पुरुष दर्प किन्तु, किसी भी कीमत पर विवाह को बचाने का, पति से अधिक प्रतिभाशाली पत्नी का प्रयास, फिर पुरूष का समझना और पत्नी को बचाने की उसकी लडाई,। विवाह जैसी सामाजिक संस्था को बचाने का प्रयास । मुझे नहीं मालूम आपको क्या अच्छा लगा, पर मुझे तो अन्त में दोनों का साथ गाना सबसे अच्छा लगा । जब आप अपने आपको व्रहद व्यवस्था का हिस्सा मानते हैं तो आप कहीं न कहीं उसे अपना सर्वस्व दाव पर लगा कर भी बचाने का प्रयत्न करते हैं । वहीं जब आप ही अपने आपको उसके केन्द्र में रख लेते हैं तो अपनी सुविधानुसार उसे तोडते-मरोडते रहते हैं! किसी भी सामाजिक व्यवस्था को समयानुसार पुनर्भाषित करना और बात है, और अपनी इच्छानुसार उसे घुमाना और बात ।

आज के अनियंत्रित व्यक्तिवाद ने क्षणिक आनन्द को भले ही बढा दिया हो परंतु जीवन को जैसे पॉपकोर्न बना दिया है । आज हल्ला ज्यादा हो गया है और रुमानियत कम ।

अक्सर यह कहा जाता है की राम की कहानी कब तक सुनायें । उनकी फिल्मों में भी राम-रावण होते, किन्तु उन्के बीच में युद्ध नहीं होता । कभी राम रावण हो जाता तो कभी रावण राम । उनके लक्षमण, अंगद , मेघनाद अक्सर दुविधाग्रस्त हो जाते की राम कौन और रावण कौन ? कभी रावण राम की विनम्रता की प्रशंसा करता, तो कभी राम रावण के पांडित्य की । कोई किसी की सीता नहीं चुराता, सब मिलकर हमें गुदगुदाते, अनकहे रूप में जीवन की किसी सच्चाई का आभास करा जाते ।

आज 'खूबसूरत' जैसी खूबसूरत फिल्म नहीं बन सकती क्योंकि अनुशासन और आनन्द का वो सन्तुलन भुला दिया गया है ।हर व्यक्ति अपने समय की उपज होता है और कहानियाँ भी ! मुकर्जी साहब अपने समय की उपज थे भी और नहीं भी, क्योंकि उनके समय को जैसा हम याद करते हैं वैसा उन्होंने ही बनाया था । समय को गढ्ने और प्रभावित करने के लिये अपने समाज की समझ, और उसका हिस्सा होने की अनुभूति चाहिये, फार्म हाउसों में कहानियाँ लिखने वाले करन जौहर नहीं, जो अपने कृत्रिम सच (विकृति) समाज पर थोप रहे हों !

हमारे समय के ह्रिषिकेश मुकर्जी कहाँ हैं ।

जो हम ना कह सके
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तंग गलियों में अंधेरी रात को पह्चानिये,
वक्त के ज़ख्मी हुए हालात को पह्चानिये

खूं पसीना दे के लहराता है जो फ़सले बहार,
यार उस इन्सान की औकात को पह्चानिये ।

बज रहे हैं जो हुकूमत के सुरों में रात दिन,
उनके ऐसे मज़हबी नग्मात को पह्चानिये ।

देखकर पगडंडियों पर खून के ताज़ा निशान,
बस्तियों पर भेडियों की घात को पह्चानिये

इस घुटन में भी जो बारिश के लिये हें बेकरार,
बाद्लों की ऐसी हर बरसात को पह्चानिये ॥
----नरेन्द्र कुमार

Thursday, August 03, 2006

किसानों की आत्महत्या
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खेती किसानी का मुझे कोई अनुभव नही है। गावों मे रहने की भी बहुत कम समझ है। पर इसके बावजूद किसान भाइयों की दुर्दशा मन को द्रवित करती है। ज़िन्दगी और मौत के बीच में झूलते परिवार कैसे ने आपको सम्भालते होंगे, सोच कर दिल भर जाता है। कौन है इस सबके लिये उतरदायी, मै, आप या समूची व्यवस्था! एकतरफ़ा प्रेम मै असफ़ल होकर जान देती पीढी और कर्ज़ में डूबे किसान दोनो को ही तो मार रही है ये खुली अर्थव्यवस्था! पर पढा-लिखा व्यक्ति आज भी पूंजी के इस खुले खेल का पक्षधर दिखाई देता है। समूचा मीडिया जैसे मध्यवर्ग की रुचियों का सत्यनाश करने पर तुला हुआ है। समाजवाद के ढकोसले के बाद अब पून्जीवाद का अन्धा दौर चला है। हर समस्या का हल निजीकरण मै ढूढा जा रहा है।
करीब दो हज़ार से ज्यादा किसान अकेले विदर्भ के इलाके मै आत्महत्या कर चुके है। किन्तु कही कोई बेचैनी नही दिखायी देती। दो सौ लोगो के विमान के अपहरण पर आसमान सर पे उठाने वाला मीडिया मगन है क्रिकेट और फ़िल्मो की उलट्बासियो मै! इस खुली अर्थव्यवस्था के दौर में खेती को तीसरी दुनिया के देशों का रोजगार समझा जाता है।मै मानता हू कि इतनी बड़ी आबादी के लिये हमै सेवा क्षेत्र के रोजगार को बढाना होगा, पर हम ये कब समझेंगे, कि अकेला वही क्षेत्र एक अरब के देश मै क्या जीविका दे सकता है? लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी को रोजगार देने वाले क्षेत्र की कोई आवाज नही है नीति निर्धारण मै!
एक नागरिक होने के नाते मै इतना ही कह सकता हू कि ये कौन सा अर्थशास्त्र है कि स्व रोजगार मै लगा समुदाय मर रहा है और किसी अन्य की गुलामी करने वाला वर्ग फल-फूल रहा है!!


सबसे बडा प्रश्न यह है कि श्रम आधारित व्यवस्था से पूजी आधारित व्यवस्था की तरफ़ बढ्ते हुए हमने उद्योगो के बारे मै नही सोचा जो न केवल श्रम पर निर्भर है बल्कि हमारी व्यवस्था की रीढ़ है।
यह एक कटु सत्य है कि जब समूची दुनिया की इकोनोमी मन्दी के दौर में थी तब हम बच गये क्योकि हमारा बुनियादी आधार कृषि है।, जिसका ढाचा सदियों मॆं बना है, और जो बहुत जल्दी नही हिलता। रुमानी तौर से सोचने से कुछ नही होगा, बाज़ारवाद के इस दौर में खेती कैसे मुनाफ़ा दे सके इस पर सोचना होगा!

जो हम न कह सके
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पेशकार से कलेक्टर तक
केमिस्ट से डोक्टर तक
सचिव से मिनिस्टर तक
एडीए, बीडीए, सीडीए
डीडीए, जीडीए, आदि-आदि मॆं
कार्यरत क्लेर्को से अफ़सरो तक
मेट से कोन्ट्रच्टर तक
सिपाही से कमिश्नर तक
दलालो से शेयर होल्डरों तक
डीलरों से बिल्ड्ररों तक
छुट्भैयों से स्मगलरों तक
समस्त सरकारी
अर्धसरकारी
गैर सरकारी आदि आदि संसथाओं में
कम या अधिक लाभ के पदो पर आसीन
जितने भी है हम सब
संयोग से शिक्षित हैं
और
यह भी संयोग ही है कि
हमारे देश को निरन्तर
चिन्ताजनक स्थिति में
ले जाने का श्रेय भी
इसी शिक्षित वर्ग को प्राप्त है
धन्य है हम, और हमारा आदर्श शिक्षित वर्ग,
कैसी है ये शिक्षा जिसका
विनय से कोई सरोकार नही
कैसी है वह शिक्षा जो
इन्सान को हैवान से भी बदतर स्तर तक लिये जा रही है
किस शान का आलोक है जो
मानवता को निरन्तर अन्धेरी खाई मै गिरा रहा है ?

--सरवर हसन